हिन्दी को समर्पित मेरी कविता :
पूछो न कब, कैसे कहाँ, यार हुआ है ?
मुझको तो हिन्दी से बहुत प्यार हुआ है
क्यों न मैं इसे माथे पे सजा लूं ?
बिन्दी रुप इसका जब स्वीकार हुआ है
सुन्दर, मनोरम और ओजस्विनी है
जनगण पर इसका अधिकार हुआ है
तुलसी, कबीर और मीरा की आत्मा है
साहित्य की रचना इससे साकार हुई है
सहज,सरल , सुभाष्य और सुगम है
अपनाने मे इसको न इंकार हुआ है
उस संस्कृत की है ये लाड़ली बेटी
ग्रंथो मे समाहित जिससे सार हुआ है
इसने कल्पनाओ को भी रुप दिये है
काव्यों मे खूब इसका श्रंगार हुआ है
उन्मुक्त हुये विचार जैसे पंख लगे है
इसके बिन जीना बड़ा दुश्वार हुआ है
सात सुरों से भर देती है ये सरगम
सूने मन मे जैसे झन्कार हुआ है
सभी बहनों की है सखी सहेली
इसके संग उनका भी प्रचार हुआ है
अनमोल और अतुल्य है इसकी विधाऐं
इस पर तो फ़िदा सारा संसार हुआ है
अंग्रेजी से इसको तो बैर नही है
अतिथी का स्वागत हर बार हुआ है
व्यापार जगत ने भी है अब ये माना
बिन हिन्दी के संभव व्यापार नही है
व्यवहार मे जब से इसको बसा लिया है
नवऊर्जा नवचेतना का संचार हुआ है
आओ मिलकर सभी इसका प्रसार करें
हिन्दी हैं ,हमवतन है, हिन्दी से प्यार करे
कविराय मन की है यही अभिलाषा
फूले फले बने जन जन की भाषा
©सुरेश राय
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